अरावली के 100 मीटर के नियम से उसकी जैव विविधता, भूजल प्रणालियों के नष्ट होने का खतरा: विशेषज्ञ
अमित पवनेश
- 05 Dec 2025, 06:06 PM
- Updated: 06:06 PM
(अपर्णा बोस)
नयी दिल्ली, पांच दिसंबर (भाषा) दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक और लगभग 700 किलोमीटर तक फैली अरावली पर्वत माला लंबे समय से थार रेगिस्तान से आने वाली रेत और धूल को रोकने वाली प्राकृतिक ढाल है। यह भूजल पुनर्भरण में मदद करती है और दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) सहित कई राज्यों की समृद्ध जैव विविधता को भी बनाए रखती है।
हालांकि, हाल ही में उच्चतम न्यायालय द्वारा सरकार की एक नयी परिभाषा को स्वीकार करने के बाद कि केवल 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियां ही अरावली पहाड़ियां कही जाएगी, विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण अरावली के कई हिस्से अब संरक्षित नहीं रह जाएंगे और इससे दिल्ली सहित कई क्षेत्रों को कठोर मौसम और सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ सकता है।
सतत संपदा क्लाइमेट फाउंडेशन संस्थापक निदेशक हरजीत सिंह ने कहा, ‘‘सिर्फ 100 मीटर से अधिक ऊंची पहाड़ियों को 'अरावली' कहना उस भूदृश्य को मिटा देता है, जो उत्तर भारत को श्वास प्रदान करता है और हमारी बावड़ियों- कुओं को जल से भरता है। कागजों पर तो यह 'टिकाऊ खनन' और 'विकास' है, लेकिन लेकिन ज़मीनी हकीकत में यह धमाकों (डायनामाइट) से सड़कों और गड्ढों के ज़रिये तेंदुए के गलियारों, गांव की साझा ज़मीनों और दिल्ली-एनसीआर की आख़िरी हरित ढाल को चीरता हुआ नजर आता है।"
जलवायु कार्यकर्ता ने कहा, ‘‘परिभाषा को छोटा करने का मतलब है कि इस 700 किलोमीटर लंबे हिस्से के 90 प्रतिशत भाग का कानूनी तौर पर सफाया किया जा सकता है - एक पर्वत श्रृंखला का धीरे-धीरे विलोपन और इसके साथ ही, जल, वन्य जीवन और मौसम का भी विनाश। यह ना केवल जैव विविधता या भूवैज्ञानिक आश्चर्य का नुकसान है, बल्कि यह क्षेत्र के महत्वपूर्ण पुनर्भरण क्षेत्र को भी नष्ट कर देता है, जिससे लाखों लोगों के लिए कठोर धूल भरी आंधी, भूजल में गिरावट और वायु प्रदूषण में घातक वृद्धि होगी।’’
पर्यावरणविद् विमलेंदु झा ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘उच्चतम न्यायालय के फैसले से ना केवल दिल्ली बल्कि अरावली पहाड़ियों सहित पूरा क्षेत्र प्रदूषण के दायरे में आ जाएगा।’’
‘‘अरावली पहाड़ी’’ को उन चिह्नित अरावली जिलों में मौजूद किसी भी भू-आकृति के रूप में परिभाषित किया जाएगा, जिसकी ऊंचाई स्थानीय निचले बिंदु से 100 मीटर या उससे अधिक हो। वहीं, ‘‘अरावली पर्वतमाला’’ एक-दूसरे से 500 मीटर के भीतर दो या अधिक ऐसी पहाड़ियों का समूह होगा।
उच्चतम न्यायालय ने प्राधिकारियों को अरावली परिदृश्य के भीतर खनन के लिए अनुमत क्षेत्रों और पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील, संरक्षण-महत्वपूर्ण और पुनरुद्धार प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की पहचान करने का भी निर्देश दिया, जहां खनन पर सख्ती से प्रतिबंध लगाया जाएगा या केवल असाधारण और वैज्ञानिक रूप से उचित परिस्थितियों में ही अनुमति दी जाएगी, झा ने कहा कि इस निर्णय से अरावली पर्वतमाला के 90 प्रतिशत तक लुप्त होने का खतरा है।
विमलेंदु झा ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘शीर्ष अदालत द्वारा किसी भी प्रकार के खनन या अन्य 'विकासात्मक' गतिविधियों की अनुमति देने का अर्थ यह है कि अरावली की 90 प्रतिशत पहाड़ियां लुप्त हो सकती हैं। बढ़ते वायु प्रदूषण के संदर्भ में, यह निर्णय, जबकि उच्चतम न्यायालय दीर्घकालिक उपाय करने की बात करता रहा है, उन प्राकृतिक सुरक्षा उपायों का ही दोहन करता है जिनकी रक्षा की जानी चाहिए।" उन्होंने कहा, ‘‘यह एक पारिस्थितिक खजाना है।’’
भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला, अरावली, चंबल, साबरमती और लूनी जैसी महत्वपूर्ण नदियों का उद्गम स्थल है। इसके जंगल, घास के मैदान और आर्द्रभूमि लुप्तप्राय पौधों और जानवरों की प्रजातियों का पोषण करते हैं।
तथापि, वनों की कटाई, खनन, पशुओं के चरने और मानव अतिक्रमण के कारण मरुस्थलीकरण की स्थिति और खराब हो रही है, जलभृतों (जमीन के नीचे पानी का संग्रह करने वाली प्राकृतिक परतें) को नुकसान पहुंच रहा है, झीलें सूख रही हैं और वन्यजीवों को जीवित रखने की इस क्षेत्र की क्षमता कम हो रही है।
मार्च 2023 में, सरकार ने इन समस्याओं से निपटने के लिए अरावली ग्रीन वॉल पहल शुरू की। इस परियोजना का उद्देश्य गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में 64.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को कवर करते हुए पांच किलोमीटर चौड़ा हरित क्षेत्र बफर स्थापित करना है।
विज्ञान एवं पर्यावरण केन्द्र की कार्यकारी निदेशक अनुमिता रॉय चौधरी ने कहा कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तथा अन्य राज्यों में उड़ने वाली धूल के मूल कारणों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि अरावली, वन तथा हरित पट्टी की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, ‘‘क्योंकि यह प्राकृतिक अवरोध वायु गुणवत्ता की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।’’
चौधरी ने पीटीआई-भाषा को बताया, "यह न केवल हमें रेगिस्तानी धूल से बचाता है, बल्कि प्रदूषण को रोकने और हवा से विषाक्त उत्सर्जन को अवशोषित करने के लिए आवश्यक हरित आवरण भी प्रदान करता है।"
राष्ट्रीय राजधानी जहरीली हवा से जूझ रही है, क्योंकि शुक्रवार को वायु गुणवत्ता एक बार फिर 'बहुत खराब' श्रेणी में रही।
शहर भर के तीस स्टेशन ने 'बहुत खराब' स्तर की सूचना दी, जिसमें बवाना में सबसे अधिक 373 एक्यूआई (वायु गुणवत्ता सूचकांक) दर्ज किया गया। रविवार को शहर में एक्यूआई 279 दर्ज किया गया था, जो सोमवार को वापस 304 पर आ गया। मंगलवार को यह और बढ़कर 372 हो गया और बुधवार को 342 पर रहा। बृहस्पतिवार को यह 304 पर फिर से 'बहुत खराब' हो गया।
पर्यावरण विशेषज्ञ भारती चतुर्वेदी ने अरावली पहाड़ियों को धूल रोकने वाली आखिरी ढालों में से एक बताते हुए कहा कि सरकार की नयी परिभाषा का बच्चों, बुजुर्गों, बाहरी काम करने वाले लोगों, कमज़ोर घरों में रहने वालों और अन्य संवेदनशील समूहों की सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ेगा।
उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘इस फैसले पर गंभीरता से फिर सोचना चाहिए, क्योंकि इससे दिल्ली बिल्कुल रहने लायक नहीं बचेगी। शहर के अंदर कितनी भी पेड़-पौधों लगाये जाएं, वह अरावली की जगह नहीं ले सकते।’’
अरावली को लेकर प्रदूषण का मुद्दा और उच्चतम न्यायालय का फैसला संसद में और राजनीतिक नेताओं के बीच भी उठ रहा है। कांग्रेस संसदीय दल की प्रमुख सोनिया गांधी ने बुधवार को आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने अरावली पहाड़ियों के लिए ‘‘डेथ वारंट’’ जैसा कदम उठाया है।
उन्होंने मांग की कि सरकार वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 और वन संरक्षण नियम (2022) में संसद के माध्यम से पारित किए गए संशोधनों को वापस ले।
कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाद्रा ने संसद में वायु प्रदूषण पर चर्चा की मांग करते हुए इसे "एक बड़ा सार्वजनिक मुद्दा बताया जिस पर चर्चा जरूरी है।"
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत में प्रदूषण हर साल बदतर होता जा रहा है और सरकार से कड़े कदम उठाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे राजनीतिक नहीं हैं और पर्यावरण संरक्षण के लिए उठाए गए कदमों का वे सरकार का समर्थन करेंगे।
भाषा अमित