असंभव अनुवाद: जब संदर्भ ही स्पष्ट नहीं तो शब्दों का जबरदस्ती अनुवाद क्यों?
(द कन्वरसेशन) जितेंद्र नरेश
- 05 Dec 2025, 04:01 PM
- Updated: 04:01 PM
(मार्क डब्ल्यू. पोस्ट, यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी)
सिडनी, पांच दिसंबर (द कन्वरसेशन) अगर आप अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा में पारंगत हैं तो आपने गौर किया होगा कि कुछ शब्दों का सटीक अनुवाद करना नामुमकिन होता है।
किसी वस्तु के ‘शिबुई’ (एक प्रकार की सरल लेकिन कालातीत रूप से सुंदर) पर अचंभित होने वाले जापान के एक डिजाइनर अंग्रेजी में इसके लिए सटीक समानार्थी शब्द के अभाव से असमंजस में पड़ सकते हैं।
पुर्तगाली भाषी लोग ‘सौदादे’ को व्यक्त करने में कठिनाई महसूस कर सकते हैं, जो लालसा और उदासी का मिश्रण है।
वहीं वेल्स के लोगों को ‘हिराएथ’ का अनुवाद करने में और भी ज्यादा मुश्किल होगी।
भाषाई कैद
विभिन्न भाषाओं के शब्द उनके बोलने वालों के विचारों और अनुभवों को अलग-अलग ढंग से विभाजित व संकुलित कर सकते हैं तथा ‘भाषाई सापेक्षता’ के सिद्धांत को मजबूती प्रदान करते हैं।
‘सपिर-वॉर्फ’ परिकल्पना के रूप में जाना जाने वाला यह सिद्धांत आंशिक रूप से अमेरिकी भाषाविद् एडवर्ड सपिर के 1929 के दावे से सामने आया है।
सपिर ने दावा किया था कि भाषाएं लोगों को सांस्कृतिक रूप से जोड़ने का काम करती हैं। अगर दानिश भाषी लोगों को ‘हाइगे’ का अनुभव होता है तो उनके पास इसके बारे में बात करने के लिए एक शब्द होना चाहिए लेकिन अगर अंग्रेजी भाषा में ऐसा नहीं होता है तो हमारे पास भी इसका अनुवाद नहीं होगा।
इसके अलावा, सपिर ने यह भी दावा किया कि एक भाषा का इस्तेमाल करने वाले लोग केवल वस्तुनिष्ठ दुनिया में नहीं रहते बल्कि अपनी ही भाषा पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं।
‘भाषाई नियतिवाद’ का यह प्रबल सिद्धांत यह दर्शाता है कि अंग्रेजी बोलने वाले अपनी भाषा की ही कैद में रहते हैं।
प्रतिस्पर्धी सिद्धांत
कुछ ही सिद्धांत इतने विवादास्पद साबित हुए हैं।
सपिर के छात्र बेंजामिन ली व्हॉर्फ ने 1940 में दावा किया था कि होपी भाषा में क्रिया काल (भूत, वर्तमान, भविष्य) का अभाव इस बात का संकेत है कि इसके बोलने वालों को समय और ब्रह्मांड का पश्चिमी भौतिकविदों से अलग ‘मानसिक अनुभव’ है।
बाद में एक अध्ययन में इसका खंडन किया गया, जिसमें होपी भाषा को लेकर लगभग 400 पृष्ठ समर्पित किए गए, जिसमें ‘आज’, ‘जनवरी’ जैसी अवधारणाएं और हां वर्तमान, भूत और भविष्य में होने वाली क्रियाओं की चर्चाएं भी शामिल थीं।
हाल ही में, मानवशास्त्रीय भाषाविद् डैन एवरेट ने दावा किया कि अमेजोनियन पिराहा भाषा में ‘पुनरावृत्ति’ या एक वाक्य को दूसरे के अंदर रखने की क्षमता का अभाव है।
(द कन्वरसेशन) जितेंद्र