मानव-पशु संघर्ष को सुलझाने के लिए ‘आदिवासी ज्ञान’ की मदद ले रहा है केरल
शफीक माधव
- 04 Jul 2025, 06:19 PM
- Updated: 06:19 PM
तिरुवनंतपुरम, चार जुलाई (भाषा) केरल के जंगलों में, जहां हाथी कभी-कभी गांवों में घुस आते हैं और खेतों के पास तेंदुए देखे जाते हैं, वहां मानव और वन्यजीवों के बीच संघर्ष को कम करने के लिए एक नया प्रयास चल रहा है, जिसके तहत उन लोगों की बात सुनी जा रही है जो पीढ़ियों से प्रकृति के सबसे करीब रहते आए हैं।
भारत में पहली बार, केरल वन विभाग ने ‘गोथराभेरी’ नामक एक कार्यक्रम शुरू किया है, जिसका उद्देश्य राज्य में मानव-पशु संघर्ष से निपटने में मदद के लिए आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करना है।
ये समुदाय सदियों से केरल के जंगलों में और उसके आसपास रहते आए हैं, जिनकी कुल संख्या 37 है। उनमें से कई लोग प्राकृतिक दुनिया से तालमेल बिठाकर सदियों पुराने रीति-रिवाजों का पालन करते हुए कभी जंगली जानवरों के साथ शांतिपूर्वक रहा करते थे।
अब जबकि उस संतुलन को बनाए रखना कठिन हो गया है, अधिकारियों को उम्मीद है कि ये समुदाय मानव-पशु संघर्ष से निपटने के उपाय सुझा सकते हैं।
हाल के महीनों में वन विभाग ने जनजातीय प्रतिनिधियों के साथ क्षेत्रीय बैठकें आयोजित कीं और उन्हें इस संबंध में अपने अनुभव एवं विचार साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया।
इन कवायद का मकसद इस ज्ञान को एकत्रित करना और इसे वन और वन्यजीव प्रबंधन के लिए एक व्यावहारिक मार्गदर्शिका में बदलना है, जो विज्ञान और व्यक्तिगत अनुभव दोनों को प्रतिबिंबित करता है।
केरल के वन मंत्री ए के ससीन्द्रन ने दो दिन पहले ‘गोथराभेरी’ के राज्य स्तरीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए कहा था कि राज्य सरकार को इसके आयोजन का विचार तब आया जब उन्हें एहसास हुआ कि इस साल जंगली हाथियों के हमलों में मारे गए 19 लोगों में से 13 आदिवासी थे और ये हमले जंगल के इलाकों में हुए थे।
मंत्री ने कहा, ‘‘हम यह अध्ययन करना चाहते थे कि अब ऐसे हमले क्यों हो रहे हैं, जबकि पहले ये दुर्लभ या अनसुने थे। इसलिए हमने आदिवासियों की बात सुनने और उनके ज्ञान को एकत्र करने का फैसला किया, जिसने उन्हें जंगली जानवरों के साथ तालमेल बिठाकर रहने में मदद की थी।’’
केरल वन बल के प्रमुख पी. पुगाजेन्थी ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया, ‘‘आदिवासी समुदायों के पास जो स्वदेशी ज्ञान है, वह प्रकृति, पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन में बहुत गहराई से निहित है। इसलिए हम योजना बना रहे हैं कि हम आदिवासियों से ही यह जानकारी एकत्र करेंगे और इसे अपनी रोजमर्रा की वन और वन्यजीव प्रबंधन रणनीतियों में उपयोग करेंगे।’’
भाषा शफीक